Sunday, January 17, 2010

नेपाल संधि की समीक्षा चाहता है भारत


काठमांडू। भारत ने नेपाल की मांग को ध्यान में रखते हुए रविवार को कहा कि वह 1950 में हुई शांति एवं मित्रता संधि की समीक्षा करना चाहता है, लेकिन इसके लिए पहल पड़ोसी देश की ओर से की जानी चाहिए क्योंकि इसमें स्पष्टता जरूरी है। नेपाल के तीन दिवसीय दौरे पर गए विदेश मंत्री एसएम. कृष्णा ने संवाददाताओं से कहा कि हम इसके लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि 1950 की संधि की समीक्षा करने की जरूरत इसलिए है क्योंकि इस पर 60 साल पहले हस्ताक्षर हुए थे और तब से अब तक समय बहुत बदल चुका है। शीत युद्ध भी समाप्त हो चुका है। विदेश मंत्री ने कहा कि हम पूरी संधि की समीक्षा करना चाहते हैं लेकिन इसके लिए पहल नेपाल की ओर से की जानी चाहिए। नेपाल की ओर से स्पष्टता होनी चाहिए। उन्हें साफ साफ बताना चाहिए कि वे क्या चाहते हैं। यह मुद्दा कृष्णा से मिलने आए सभी नेपाली नेताओं ने उठाया। माआवेादियों ने खास तौर पर संधि को समाप्त करने के लिए दबाव डालते हुए कहा कि यह असमान संधि है। दोनों देशों के बीच प्रत्यर्पण संधि पर हस्ताक्षर में विलंब के बारे में पूछे जाने पर कृष्णा ने कहा कि भारत निश्चित रूप से जल्दी चाहेगा लेकिन वह तब तक इंतजार करना चाहता है जब तक नेपाल तैयार न हो जाए। नेपाल में इस बारे में राजनीतिक दलों में सहमति न बन पाने के कारण इस पर हस्ताक्षर में विलंब हो रहा है।

ज्योति बसु को सालती रही माकपा की महाभूल


नई दिल्ली। देश में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड बनाने वाले ज्योति बसु 1996 में प्रधानमंत्री बनने के भी एकदम करीब आ गए थे, लेकिन तब उनकी पार्टी माकपा ने ऐसा करने के खिलाफ फैसला किया। इस वरिष्ठ नेता ने इसे एक 'ऐतिहासिक महा-भूल' बताते हुए कहा था कि इतिहास ऐसे अवसर दोहराता नहीं और उनकी बात सच साबित हुई। देश में 1996 में हुए लोकसभा चुनाव के खंडित जनादेश में कांग्रेस सत्ता में नहीं लौट सकी और भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी। उन हालात में तमिलनाडु हाऊस में प्रधानमंत्री का उम्मीदवार चुनने के लिए गैर-कांग्रेसी वरिष्ठ नेताओं की महत्वपूर्ण बैठक हुई। इस महत्वपूर्ण बैठक में विश्वनाथ प्रताप सिंह का नाम सामने आया, लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा कर संयुक्त मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में ज्योति बसु का नाम सुझाया। इस प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए माकपा के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत पार्टी के पास गए। माकपा पोलित ब्यूरो में इस पर चर्चा हुई और गहरे मतभेद उभरने पर मामला केंद्रीय समिति के सुपुर्द कर दिया गया। कट्टरपंथी वाम नेताओं की बहुमत वाली केंद्रीय समिति ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश को यह कह कर नामंजूर कर दिया कि पार्टी अभी इस हालत में नहीं है कि संयुक्त मोर्चा सरकार में वह अपनी नीतियों को लागू करवा पाए। कामरेड सुरजीत ने जब संयुक्त मोर्चा के नेताओं को पार्टी के इस फैसले से अवगत कराया तो वीपी सिंह ने एक बार फिर माकपा और उसकी केंद्रीय समिति से उसके उस 'दुर्भाग्यपूर्ण' निर्णय पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया। वीपी सिंह के आग्रह पर तमिलनाडु हाऊस से ही सुरजीत ने प्रकाश कारत को फोन कर कहा कि आपातकालीन बैठक के लिए वह केंद्रीय समिति के नेताओं को दिल्ली में ही बने रहने को कहें। लेकिन केंद्रीय समिति ने पेशकश को ठुकरा दिया। बसु ने देश में पहले कम्युनिस्ट नेता को देश का प्रधानमंत्री बनने देने के अवसर को हाथ से निकल जाने के पार्टी के इस निर्णय पर लंबे समय तक चुप्पी साधे रखने के बाद इसे 'ऐतिहासिक महा-भूल' बताया था। कुछ समय बाद बसु की इस टिप्पणी के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने फिर दोहराया कि हां, मैं अभी भी मानता हूं कि वह ऐतिहासिक महा-भूल थी, क्योंकि ऐसे अवसर दोबारा नहीं आते। इतिहास ऐसे अवसर दोहराता नहीं है। उन्होंने कहा था कि संयुक्त मोर्चा ने यह जानते हुए भी कि वह मा‌र्क्सवादी और कम्युनिस्ट हैं, उन्हें प्रधानमंत्री बनने की पेशकश इसलिए की थी कि प्रधानमंत्री पद के लिए उन्हें उस समय कोई अन्य व्यक्ति नजर नहीं आ रहा था। बसु के निधन पर माकपा पोलित ब्यूरो की आज यहां हुई शोक बैठक में 1996 की 'महा-भूल' को भी याद किया गया। बैठक के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता सीताराम येचूरी ने संवाददाताओं से कहा कि एक समय जब प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम चला तो उनकी राय थी कि प्रधानमंत्री पद स्वीकार किया जाए, लेकिन पार्टी की राय अलग थी। ज्योति बसु ने पार्टी की राय को मानकर वामपंथी और पार्टी अनुशासन की मिसाल कायम की। माकपा द्वारा बसु को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश ठुकरा दिए जाने पर जी के मूपनार और जनता दल नेता तथा कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एच डी देवेगौड़ा का नाम आया। इस दौड़ में देवेगौड़ा ने बाजी मार ली। उस समय जनता दल के ही रामकृष्ण हेगड़े का नाम भी संभावित प्रधानमंत्री के नामों में चला लेकिन वह गति नहीं बना पाया। स्वयं ज्योति बसु ने देवेगौड़ा का नाम आगे बढ़ाते हुए सुझाया कि मंत्री और मुख्यमंत्री के रूप में उनके अनुभवों का देखते हुए उन्हें [देवेगौड़ा] प्रधानमंत्री बनाया जाए। उस समय बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद जनता दल के अध्यक्ष थे। उन्होंने तुरंत प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

Sunday, December 20, 2009

राहुल गाँधी कांग्रेस के महासचिव हैं। लेकिन उनका यह परिचय अधूरा है। फिलहाल वे उस परिवार के एक मात्र पुरूष उत्तराधिकारी हैं जो इस देश की सत्ता के सूत्र संभाले हुए है। इसलिए उनकी प्रत्येक घोषणा को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। पिछले दिनों वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में गए थे। इस विश्वविद्यालय की महत्ता इसलिए भी बढ़ गई है कि सरकार इस को मॉडल मान कर इसकी शाखाएं देश भर में स्थापित कर रही है। और इस काम के लिए करोड़ों रूपये के बजट का हिसाब-किताब लगाया जा रहा है। देश के विभाजन में, उसके सैधान्तिक पक्ष को पुष्ट करने में, इस विश्वविद्यालय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राहुल गांधी इसी विश्वविद्यालय में मुसलमानों की नई पीढ़ी के साथ देश के भविष्य पर चिन्तन कर रहे थे। वहाँ उन्होंने यह घोषणा की कि इस देश का प्रधानमंत्री मुसलमान भी बन सकता है। उनकी यह घोषणा कांग्रेस के भविष्य की रणनीति का संकेत भी देती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इससे पहले ही यह घोषणा कर चुके हैं कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है।


इससे पहले प्रधानमंत्री अफगानिस्तान में जाकर बाबर की कब्र पर सिजदा भी कर आये हैं। राहुल गांधी की यह घोषणा और मनमोहन सिंह का संसाधनों पर हक के बारे में बयान कांग्रेस की भविष्य की दिशा तय करने का संकेत देता है। अपनी इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए केन्द्र सरकार ने दो आयोगों की नियुक्ति भी की थी। इनमें से एक था राजेन्द्र सच्चर आयोग और दूसरा था न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा आयोग। सच्चर आयोग ने अपने दिये हुए काम को बखूबी अंजाम दिया। उसने सिफारिशें की कि मुसलमानों को मजहब के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाना चाहिए। सच्चर तो अपनी सीमा से भी आगे निकल गये थे उन्होंने भारतीय सेना तक में मुसलमानों की गिनती प्रारम्भ कर दी थी और सेना से जवाब तलब करना शुरू कर दिया था, कि वहां कितने मुसलमान है? यह तो भला हो सेनाध्यक्षों का कि उन्होंने सच्चर को आगे बढ़ने से रोकते हुए कहा कि भारतीय सेना में भारतीय सैनिक हैं मुसलमान या किसी अन्य मजहब से उनकी पहचान नहीं होती। लेकिन सच्चर को तो सरकार ने भारतीय पहचान छोड़कर मुसलमान की मजहबी पहचान पुख्ता करने का काम दिया हुआ था।

उसके बाद इसी योजना को आगे बढ़ाते हुए सरकार ने रंगनाथन मिश्रा आयोग की स्थापना की। कुछ लोगों को ऐसा लगता था कि अनुसूचित जाति के अधिकांश लोग मतांतरण के माध्यम से इसी लिए मुसलमान या इसाई नहीं बन पाते क्योंकि इस्लाम या चर्च की शरण में चले जाने के बाद उनको संविधान द्वारा मिला आरक्षण समाप्त हो जाता है। संविधान यह मान कर चलता है कि जाति प्रथा हिन्दू समाज का अंग है। इस्लाम अथवा इसाईयत में जाति विभाजन अथवा जाति प्रथा नहीं है। मतांतरण को प्रोत्साहित करने वाले मुल्ला अथवा पादरी भी अनुसूचित जाति के लोगों को यही कह कर आकर्षित करते हैं कि जब तक आप हिन्दू समाज में रहोगे तब तक जाति विभाजन से दबे रहोगे। इसलिए जाति से मुक्ति पाने के लिए इस्लाम अथवा चर्च की शरण में आ जाओ। अब मुल्लाओं और पादरियों को यह लगता है कि जब तक हिन्दू समाज में अनुसूचित जाति के लोगों को आरक्षण मिलता रहेगा तब तक वे मुसलमान या इसाई नहीं बनेंगे। इसलिए उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि मुसलमान अथवा इसाई बने मतांतरित लोगों को भी जाति के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। परन्तु उनके दुर्भाग्य से न्यायपालिका ने उसमें अड़ंगा लगा दिया। उस अड़ंगे को दूर करने के लिए भारत सरकार ने रंगनाथमिश्रा आयोग की स्थापना की। इस आयोग ने अपने दिये हुए कार्य को पूरा करते हुए यह सिफारिश कर दी है कि मतांतरित लोगों को भी, जो मुसलमान अथवा इसाई हो गये हैं, जाति के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। सरकार इस आयोग की सिफारिशों को भी लागू करने की दिशा में तत्पर दिखाई दे रही है। लेकिन इस देश को मुस्लिम बनाना या उसे मुसलमानों के हाथों सौंप देने का अभियान अनेक पक्षिय है। एक तरफ कानूनी और संवैधानिक दावपेच हैं तो दूसरी तरफ धरातल पर तेजी से हो रहा कार्य है।

लव-जेहाद उनमे से एक पक्ष है। केरल उच्च न्यायलय ने संकेत दिया है कि केरल में पिछले कुछ वर्षों में तीन हजार से लेकर चार हजार हिन्दू लड़कियों को प्रेम-जाल में फांस कर इस्लाम में मतांतरित किया गया है। लेकिन इस बड़े अभियान में यदि एक पक्ष लव-जिहाद है तो दूसरा पक्ष आतंकवाद है। इस्लामी आतंकवाद ने इस देश के अनेक हिस्सों में अपनी जड़े जमा ली हैं इसी के बलबूते उसने कश्मीर प्रांत से हिन्दुओं का सफाया कर दिया है। असम और बंगाल के अनेक जिले बंग्लादेशियों को अवैध गुसपैठ से मुस्लिम बहुल हो चुके हैं। न्यायपालिका की बार-बार की फटकार के बावजूद केन्द्र सरकार की रूची वोट बैंक को देखते हुए इन अवैध बंग्लादेशियों को भारत से निकालने की कम है उन्हें प्रश्रय देने की ज्यादा।

अब रही-सही कसर लिब्राहन आयोग ने पूरी कर दी है। श्री मनमोहन सिंह लिब्राहन ने अपनी रपट में मुस्लिम समाज को धिक्कारा है। कि जब विवादित ढांचे को गिराने की तैयारियां हो रही थी तो मुस्लिम समाज क्या कर रहा था? लिब्राहन का कहना है कि मुसलमानों के संगठनों ने अपने कर्तव्य को पूरा नहीं किया। लिब्राहन के इन निष्कर्शों का क्या छिपा हुआ अर्थ है? क्या वे मुस्लिम समाज को लड़ने के लिए ललकार रहे हैं? क्या यह एक नए गृह युद्व के संकेत हैं? विभाजन से पूर्व मुस्लिम लीग जो भूमिका निभा रही थी क्या उसी में फिर से उतर आने के लिए मुसलमानों को ललकारा जा रहा है? यह पश्न गहरी जांच-पड़ताल की आशा रखते हैं। राहुल गाँधी के मुस्लिम प्रधानमंत्री के बयान को इसी पृष्ठ भूमि में जांचना परखना होगा। 1947 से पूर्व मुहम्मद अली जिन्ना और ब्रिटिश सरकार एक स्वर में कह रही थी कि भारत वर्ष में मुसलमानों के साथ अन्याय हो रहा है। जिन्ना ने प्रतिकार रूप में उसका रास्ता अलग देश के रूप में चुना। दुर्भाग्य से 21 वीं शताब्दी में भी कांग्रेस सरकार और अलगाववादी मुस्लिम संगठन वही भाषा बोल रहे हैं। क्या यह एक नये विभाजन की तैयारी है या फिर इस देश को ही मुस्लिम देश बनाने की एक और साजिश?

भारत को मुस्लिम देश बनाने की तैयारी

राहुल गाँधी कांग्रेस के महासचिव हैं। लेकिन उनका यह परिचय अधूरा है। फिलहाल वे उस परिवार के एक मात्र पुरूष उत्तराधिकारी हैं जो इस देश की सत्ता के सूत्र संभाले हुए है। इसलिए उनकी प्रत्येक घोषणा को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। पिछले दिनों वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में गए थे। इस विश्वविद्यालय की महत्ता इसलिए भी बढ़ गई है कि सरकार इस को मॉडल मान कर इसकी शाखाएं देश भर में स्थापित कर रही है। और इस काम के लिए करोड़ों रूपये के बजट का हिसाब-किताब लगाया जा रहा है। देश के विभाजन में, उसके सैधान्तिक पक्ष को पुष्ट करने में, इस विश्वविद्यालय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राहुल गांधी इसी विश्वविद्यालय में मुसलमानों की नई पीढ़ी के साथ देश के भविष्य पर चिन्तन कर रहे थे। वहाँ उन्होंने यह घोषणा की कि इस देश का प्रधानमंत्री मुसलमान भी बन सकता है। उनकी यह घोषणा कांग्रेस के भविष्य की रणनीति का संकेत भी देती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इससे पहले ही यह घोषणा कर चुके हैं कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है।
इससे पहले प्रधानमंत्री अफगानिस्तान में जाकर बाबर की कब्र पर सिजदा भी कर आये हैं। राहुल गांधी की यह घोषणा और मनमोहन सिंह का संसाधनों पर हक के बारे में बयान कांग्रेस की भविष्य की दिशा तय करने का संकेत देता है। अपनी इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए केन्द्र सरकार ने दो आयोगों की नियुक्ति भी की थी। इनमें से एक था राजेन्द्र सच्चर आयोग और दूसरा था न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा आयोग। सच्चर आयोग ने अपने दिये हुए काम को बखूबी अंजाम दिया। उसने सिफारिशें की कि मुसलमानों को मजहब के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाना चाहिए। सच्चर तो अपनी सीमा से भी आगे निकल गये थे उन्होंने भारतीय सेना तक में मुसलमानों की गिनती प्रारम्भ कर दी थी और सेना से जवाब तलब करना शुरू कर दिया था, कि वहां कितने मुसलमान है? यह तो भला हो सेनाध्यक्षों का कि उन्होंने सच्चर को आगे बढ़ने से रोकते हुए कहा कि भारतीय सेना में भारतीय सैनिक हैं मुसलमान या किसी अन्य मजहब से उनकी पहचान नहीं होती। लेकिन सच्चर को तो सरकार ने भारतीय पहचान छोड़कर मुसलमान की मजहबी पहचान पुख्ता करने का काम दिया हुआ था।
उसके बाद इसी योजना को आगे बढ़ाते हुए सरकार ने रंगनाथन मिश्रा आयोग की स्थापना की। कुछ लोगों को ऐसा लगता था कि अनुसूचित जाति के अधिकांश लोग मतांतरण के माध्यम से इसी लिए मुसलमान या इसाई नहीं बन पाते क्योंकि इस्लाम या चर्च की शरण में चले जाने के बाद उनको संविधान द्वारा मिला आरक्षण समाप्त हो जाता है। संविधान यह मान कर चलता है कि जाति प्रथा हिन्दू समाज का अंग है। इस्लाम अथवा इसाईयत में जाति विभाजन अथवा जाति प्रथा नहीं है। मतांतरण को प्रोत्साहित करने वाले मुल्ला अथवा पादरी भी अनुसूचित जाति के लोगों को यही कह कर आकर्षित करते हैं कि जब तक आप हिन्दू समाज में रहोगे तब तक जाति विभाजन से दबे रहोगे। इसलिए जाति से मुक्ति पाने के लिए इस्लाम अथवा चर्च की शरण में आ जाओ। अब मुल्लाओं और पादरियों को यह लगता है कि जब तक हिन्दू समाज में अनुसूचित जाति के लोगों को आरक्षण मिलता रहेगा तब तक वे मुसलमान या इसाई नहीं बनेंगे। इसलिए उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि मुसलमान अथवा इसाई बने मतांतरित लोगों को भी जाति के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। परन्तु उनके दुर्भाग्य से न्यायपालिका ने उसमें अड़ंगा लगा दिया। उस अड़ंगे को दूर करने के लिए भारत सरकार ने रंगनाथमिश्रा आयोग की स्थापना की। इस आयोग ने अपने दिये हुए कार्य को पूरा करते हुए यह सिफारिश कर दी है कि मतांतरित लोगों को भी, जो मुसलमान अथवा इसाई हो गये हैं, जाति के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। सरकार इस आयोग की सिफारिशों को भी लागू करने की दिशा में तत्पर दिखाई दे रही है। लेकिन इस देश को मुस्लिम बनाना या उसे मुसलमानों के हाथों सौंप देने का अभियान अनेक पक्षिय है। एक तरफ कानूनी और संवैधानिक दावपेच हैं तो दूसरी तरफ धरातल पर तेजी से हो रहा कार्य है।
लव-जेहाद उनमे से एक पक्ष है। केरल उच्च न्यायलय ने संकेत दिया है कि केरल में पिछले कुछ वर्षों में तीन हजार से लेकर चार हजार हिन्दू लड़कियों को प्रेम-जाल में फांस कर इस्लाम में मतांतरित किया गया है। लेकिन इस बड़े अभियान में यदि एक पक्ष लव-जिहाद है तो दूसरा पक्ष आतंकवाद है। इस्लामी आतंकवाद ने इस देश के अनेक हिस्सों में अपनी जड़े जमा ली हैं इसी के बलबूते उसने कश्मीर प्रांत से हिन्दुओं का सफाया कर दिया है। असम और बंगाल के अनेक जिले बंग्लादेशियों को अवैध गुसपैठ से मुस्लिम बहुल हो चुके हैं। न्यायपालिका की बार-बार की फटकार के बावजूद केन्द्र सरकार की रूची वोट बैंक को देखते हुए इन अवैध बंग्लादेशियों को भारत से निकालने की कम है उन्हें प्रश्रय देने की ज्यादा।
अब रही-सही कसर लिब्राहन आयोग ने पूरी कर दी है। श्री मनमोहन सिंह लिब्राहन ने अपनी रपट में मुस्लिम समाज को धिक्कारा है। कि जब विवादित ढांचे को गिराने की तैयारियां हो रही थी तो मुस्लिम समाज क्या कर रहा था? लिब्राहन का कहना है कि मुसलमानों के संगठनों ने अपने कर्तव्य को पूरा नहीं किया। लिब्राहन के इन निष्कर्शों का क्या छिपा हुआ अर्थ है? क्या वे मुस्लिम समाज को लड़ने के लिए ललकार रहे हैं? क्या यह एक नए गृह युद्व के संकेत हैं? विभाजन से पूर्व मुस्लिम लीग जो भूमिका निभा रही थी क्या उसी में फिर से उतर आने के लिए मुसलमानों को ललकारा जा रहा है? यह पश्न गहरी जांच-पड़ताल की आशा रखते हैं। राहुल गाँधी के मुस्लिम प्रधानमंत्री के बयान को इसी पृष्ठ भूमि में जांचना परखना होगा। 1947 से पूर्व मुहम्मद अली जिन्ना और ब्रिटिश सरकार एक स्वर में कह रही थी कि भारत वर्ष में मुसलमानों के साथ अन्याय हो रहा है। जिन्ना ने प्रतिकार रूप में उसका रास्ता अलग देश के रूप में चुना। दुर्भाग्य से 21 वीं शताब्दी में भी कांग्रेस सरकार और अलगाववादी मुस्लिम संगठन वही भाषा बोल रहे हैं। क्या यह एक नये विभाजन की तैयारी है या फिर इस देश को ही मुस्लिम देश बनाने की एक और साजिश?

sabhar: Pravata.com

Tuesday, October 13, 2009

अब वसुंधरा प्रकरण के पटाक्षेप का वक्त



मंगलवार को तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान पूरा होने के बाद भाजपा आलाकमान को एक बार फिर वसुंधरा राजे प्रकरण से जूझना पड़ेगा। पार्टी के बड़े नेताओं में मतभेद की वजह से यह मामला लटक रहा है। दरअसल इस मुद्दे पर बड़े नेता भी दो खेमे में बंटे हुए हैं। इस बीच वसुंधरा ने पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात भी की है, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी। पार्टी में सभी नेता यह तो कह रहे हैं कि वसुंधरा का राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से हटना तय है, लेकिन कब तक? इसका सीधा जवाब किसी के पास नहीं है।
भाजपा आलाकमान के फैसले को बीते दो माह से चुनौती देती आ रहीं वसुंधरा पर फैसले की घड़ी नजदीक आती जा रही है। वह खुद इस्तीफा दें या उन पर कार्रवाई की जाए इस पर भले ही मतभेद हो, लेकिन नेतृत्व इस बात पर एक मत है कि इस मामले का पटाक्षेप राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के पहले कर दिया जाए। यह बैठक ख्8-ख्9 अक्टूबर को दिल्ली में होने जा रही है। हालांकि, पार्टी नेतृत्व क्फ् अक्टूबर को मतदान पूरा होने के बाद से ही इस मामले पर सक्रिय हो जाएगा। उसकी पहली कोशिश तो दीपावली के पहले ही वसुंधरा से इस्तीफा लेने की है। पार्टी के एक केंद्रीय नेता ने दीपावली के पहले या बाद कार्रवाई के सवाल पर कहा कि यहां तो हर रोज त्यौहार होते हैं। पहली कोशिश यह होगी कि वह खुद ही इस्तीफा दे दें, नहीं तो कार्रवाई की जाएगी।

दरअसल वसुंधरा मामले पर पार्टी के शीर्ष नेताओं में भी दूरियां बढ़ने लगी हैं। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू भी एक महीने की कवायद के बाद वसुंधरा को इस्तीफा के लिए तैयार नहीं कर सके हैं। वसुंधरा ने भी नायडू व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के बजाय आडवाणी से मुलाकात के बाद चुप्पी साध समस्या और बढ़ा दी है। वसुंधरा इस मामले पर पुनर्विचार चाहती हैं, लेकिन पार्टी का एक बड़ा वर्ग इसके सख्त खिलाफ है और उसका साफ मानना है कि अगर वह अब भी नहीं मानीं तो पार्टी को कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।